गुरुवार, 27 सितंबर 2007

हिंदी कि पुन्यतिथी क्यों

हमे हिंदी कि अच्छी-खासी ज्ञान नही तथापि आज हम हिंदी पे चर्चा करना चाहेंगे ओंर सोचता हूँ कि खुल कर करेंगे। १९३७ मे जवाहर लाल नेहरू ने भाषाओं के सवाल पे एक पुस्तिका लिखी थी। उसमे उन्होने ईस बात पर जोर दिया कि राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी ही होनी चाहिऐ। आशा है कि आप समझ रहे होंगे कि हम किस भाषा कि बात कर रहे हैं वा नेहरू जी किस हिंदुस्तानी भाषा कि बात कि थी। हिंदी जी हाँ हिंदी देश कि मात्री भाषा। हम लोग १४ सितंबर को हिंदी दिव्श के रूप मे मनाते भी हैं। याद करते हैं हिंदी को सेमिनार को संबोधन करते हैं अंग्रेजी मे। उदारीकरण के प्रभाव से बेंकों मे पर्तिस्पर्धा बढ़ना स्वभाबिक नही, जिसमें टिके रहने के लिए भावी बेंकिंग का आधार अच्छी सेवा है। ग्राहकों को आकर्षित करने कि लिए बेंकों कि भाषा जितनी सरळ एवं सहज होगी, व्यवसाय की दृष्टि से उतनी हिं लाभप्रद सिद्ध होगी। शायद यही शोच कर सभी बेन्कों में भी हिंदी दिवस समारोह मनाया जाता हिं। परंतु सरे काम काज अंग्रेजी में , खाता खुलबाने से लेकर नन्द करने तक, हाँ यहाँ कुछ हिंदी में भी काम होता है , परंतु नाम मात्र हिं । खास कर निजी बेंको में तो वह भी नहीं।
प्रत्येक भाषा के अपने अह्ब्द होते हैं। शब्द शारीर होता है। ओत अर्थ उनकी पहचान । परन्तु शब्द की पहचान समाज में उसके प्रयोग से बनती है। पता नहीं ये कैसी विडम्बना है की भाषा के नाम से हमारे दिमाग में एक दृश्य उभरती है, वो सही भी है वा ग़लत। वो ये की हिंदी भाषी से ज्यादा ताबजो अंग्रेजी भाषी को दी जाती है। अंग्रेजी बोलने वाले के बारे में सोचा जाता है की वो ज्ञानी पुरुष हैं। कहा जाता है की किसी समाज के विकास के साथ-२ उसकी भाषा के प्र्योजनमुलक रुपों का भी विकास होता जाता है। इस आधार पर हिंदी भाषी समाज ke विकास के इतिहास के पन्ने पलटने पर यह ज्ञात होता है की लगभग एक हजार वर्ष पूर्व अपने जन्मकाल के समय हिंदी केवल बोलचाल में प्रयुक्त होती थी, अतह प्रयोजन्मुलाक्ता की दृष्टि से उसके रूप सामान्य जीवन, कृषि ओर व्यापार के छेत्रों तक सीमित थे।धीरे-२ जब साहित्य, ज्योतिष,धर्म, दर्शन आदि के लिए भी हिंदी का प्रयोग प्रारभ हुवा तो उसके नये प्र्योजनमुलक रूप उभर कर सामने आने लगा। फिर अंग्रेजी भाषा का यह क्रेज हिंदी पे हावी क्योँ?
परम्परा तो यह है की हिंदी दिवस को हिंदी की पुन्यातिथी के रूप में मनाया जाता है। राष्ट्रभाषा की उपेक्छा के रोने रोये जाते हैं। अंग्रेजी के मुक़ाबले उसकी हैसियत के हिं भावी शिकवे परोसे जाते हैं। लेकिन ये तमाम मुड़े अभी पुराने पर गए हैं। हाल के बर्षों में हिंदी का एक एसा आत्मविशासी नई-नवेली चहरे उभरा है की घिसे-पते संदर्भों में उसकी चर्चा संभ्ब नहीं रही। आज की हिंदी नई है। इसके अन्दर वो तेज है जो आज संपूर्ण विश्व में जगमगा रहा है। हिंदी ने लगभग हर छेत्र में पंख पसार रखे हैं। देश में सर्वाधिक प्रसार संख्यावाले अख्वारों की सूचि में पहले तिन स्थानो पर हिंदी के अख्वारों का परचम लहराने लगा है। ओर यह इसी दासक की घटना हैं।एलिक्त्रोनिक मीडीया में हिंदी ओर दुसरे भारतीय भाषा के चैनलों ने अंग्रेजी को लगभग देश निकला दे दिया है। ठेठ हिंदिवाले "आज तक " के आगे नाफिश अंग्रेजी वाले "हेडल्येंस टुडे " का क्या हल है, यह जगजाहिर है।
लेखक को चाहिए की वह जन-साधारण को हिं अपना पाठक समझे ओर जो कुछ भी लिखे वह उनके लिए ही लिखे। इसका स्वभाबिक परिणाम यह होगा की भाषा कार्ल हो जायेगी। हमें इस बात को कभी नहीं भूलना भाहिए की जब किसी भी भाषा में बनावट आने लगाती है तभी नाश के दिन निकट आ जाती है। वैसे हमने भी हिंदी लिखने में काफी गलती की है. परन्तु हमें ख़ुशी है की हम आपनी टूटी-फूटी भाषा में भी हिंदी पे कुछ बहस तो किया।

गुरुवार, 20 सितंबर 2007

व्यर्थ का फतवा

ऐसा लगता है की देश ओर विदेश के कुछ उलेमा बैठे-बैठे फतवा जरी करने के आदत से ग्रस्त हो गए हैं। इसका एक तजा उदाहरण सलमान खान पे भी देखा जा सकता है। ओर भी ना जाने गाहे-बगाहे ऐसे कितने फतवा जरी किए जाते है जिसकी पुरी जानकारी तो हमारे पास सायद होगा भी नही। आप को याद दिलाना चाहूँगा तसलीमा पे जारी फतवा के बारे मे भी। पहले तो उन्हें अपना देश इसी फतवा के वजह से छोरना परा देश छोरने के बाद भी फतवा इनका पीछा नही छोरा इसका जीता जगता उदहारण हैदराबाद मे देखने को मिला। ऐसी ही एक फतवा की शिकार मुजफरनगर की ईमराना भी हुई। जो अपने ससुर के हवश का शिकार होने के बाद उसे आपने ससुर को पति ओर पति को बेटा मानने को कहा ओर ऐसा ना करने पे उसे भी फतवा जारी करने की धमकी मिली। फतवा प्रमुख इस्लामिक संस्था दारुल-उलूम देवबंद ने फोटोग्राफी को शरीयत कानूनों के खिलाफ करार देते हुए इस पर पाबंदी लगाने वाला एक फतवा जारी किया। हालांकि, समझा जाता है कि संस्था ने खुद अपने छात्रों और कर्मचारियों को फोटो पहचान पत्र जारी कर रखे हैं। दारुल-उलूम के सूत्रों के मुताबिक 4 मौलवियों ने व्यवस्था दी कि फोटो खींचना या खिंचवाना शरीयत के तहत गैरकानूनी है। पाबंदी को कानूनी रूप नहीं दिया जा रहा है तो सिर्फ इसलिए कि आमतौर पर फोटोग्राफी काफी चलन में है। इन मौलवियों में फतवा विभाग के प्रमुख मुफ्ती हबीबुर्रहमान के अलावा मुफ्ती महमूद, मुफ्ती जैनूलइस्लाम, मुफ्ती जैफुरुद्दीन शामिल है। यह फतवा असम के एक सामाजिक संगठन द्वारा फोटोग्राफी को लेकर उठाए गए सवाल के जवाब में आया है।गौरातालाब है कि यह विवादास्पद फतवा ऐसे समय में आया है, जब देश मे पवित्र रोजा चल रहा है। लाखों मुसलमान हज की यात्रा पे जाते हैं। और उनके पास फोटो वाले पासपोर्ट होते हैं । उल्लेखनीय है कि सऊदी अरब जैसे मुस्लिम देशों ने फोटोग्राफी को इजाजत दे रखी है और उनकी सरकारों ने अपने नागरिकों को फोटो वाले पासपोर्ट और पहचान पत्र जारी कर रखे हैं।इस बीच, शरीयत अदालत के एक सदस्य और उत्तर प्रदेश इमाम संगठन के अध्यक्ष मुफ्ती जुल्फिकार ने कहा कि फोटोग्राफी के शरीयत कानून के खिलाफ होने के बावजूद इससे बचा नहीं जा सकता, क्योंकि आमतौर पर यह काफी इस्तेमाल किया जाता है। फिर भी, लोगों को आपत्तिजनक तस्वीरों और गैर-जरूरी फोटोग्राफी से खुद को दूर रखना चाहिए। कहा जता है की अति सर्वत्र वर्जयेत तो क्या आप को नही लगता की फतवा का यह व्यर्थ फरमान हो रहा है? ऐसा लगता है की इस फतवा के आर मे गुमनाम उलेमा आपने नाम को जग जाहिर करना चाहते हैं। कोन जानता था बरेली के उस फारुख को जिसने सलमान पे फतवा जारी किया? क्या आप जानते थे? क्या प्रवाल्प्रताप जानते थे? क्या दीपक चोरासिया जानते थे? शायद कोए नही। परन्तु आज इन्हे साड़ी दुनियां जानती है। क्या आप को नही लगता की यही नाम कमाने के लालच मे ये फतवा जारी करते हैं। वाह रे फतवा, वाह रे उलेमा. इस का एक उदाहरण है दारुल उलूम की ओर से जारी वह फतवा जिसमे सह शिक्छा को गैर इस्लामी ओर गैर क़ानूनी करार दिया गया. आख़िर किसी उलेमा को यह अधिकार किसने दिया वह जिसे चाहे उसे गैर क़ानूनी करार दे? उच्च न्यालय की आपतियों के बावजूद कुछ उलेमा जिस तरह अपने मनमाने निर्णय को देश वासियों पर थोपने की चेष्टा कर रही है उसका विरोध होना हीं पर्याप्त नही है. इसके साथ कुछ ऐसी व्यवस्था बनाने की भी जरुरत है जिससे वे बेवजह के फतवा जारी ना कर सके. ओर ऐसा तब होगा जब मुस्लिम समाज अनर्गल फतवा के खिलाफ खुलकर खरा होगा .

बुधवार, 19 सितंबर 2007

मानवता वा दानवता

मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसे इस मृत्युभुमी पर सबसे ज्यादा सर्वोपरि का दर्जा प्राप्त है। यही वह प्राणी है जिसे सोचने समझने कि इतनी ज्यादा शक्ति प्राप्त है। फिर मानव का यह रूप जब कुछ इस कद्र ओछापन की हद पार जाये तो इसे दानव का ही रूप समझा जाता है। आज निठारी काण्ड एक ऎसी घिनोनी हरकत है जो इस मानव समाज वा मानव रूप को भादव कि पूर्ण अमावस से भी ज्यादा विकराल ओर अँधेरी रूप प्रकट करती है।
आज के इस वैज्ञानिक ओंर आर्थिक युग मे जब सारी मानव जाती नई-२ खोज चाहे वो चाँद पे जाने कि बात हो वा फिर एक नई पृथ्वी बसाने की खोज। ईन सबसे परे हमारे मानव जाती के मोहिंदर ओर सुरेन्द्र कि सोच ओर दानव्तापूर्ण ये हरकत सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम मानव का अब यही काम है। छी ये तो हमारी मानवता को ही समाप्त करने वाली घिनोनी हरकत दिखती है। ये एक ऐसी दुसाहश है जो हमे मानव कहने मे भी सर्मिन्दगी मह्सुश करता है। बात सिर्फ इनकी नही वाल्की इनके जैसे सोच रखने वाले सारे मानव से है। कुकर्म के ईन साहजदों को कभी सुकर्म से सामना हुआ वा नही यह भी एक अनूठा रहस्य ही है। आज यह एक ऐसा प्रस्न है जिसे संपूर्ण मानव को गंभीरता से सोचने पर मजबूर करती है। क्या मानव का यह दानवता वाली रूप हमारी मानव समाज भूल सकती है? सायद कभी नही....ओंर लाजमी भी यही है। क्या इस तरह कि हरकतें इन्हें सजा मिलने के बाद थम जायेगी ? क्या यह एक घटना ही घोर अपराध नही?
सुकर्म तो वो krte है जो kukrm के नाम से sharmate है ईन्होने तो वो कुकर्म किया जिससे महा कुकर्म भी शरमाते है